बीजेपी ने आज एनडीए की तरफ से राष्ट्रपति पद के लिये रामनाथ कोविंद का नाम आगे कर एक तीर से दो निशाने साधे हैं. पहला ये कि 2019 के आम चुनावों के लिये दलित समुदाय का समर्थन हासिल करने का सबसे मजबूत हथियार उठा लिया है. देश के पहले नागरिक की कुर्सी पर उसने दलित को बिठाया, यह राय तैयार होगी. के आऱ नारायणन के बाद कोविंद दूसरे दलित राष्ट्रपति होंगे. और दूसरा काम ये हुआ कि कथित तौर पर दलितों की राजनीति करनेवाले नेताओं खासकर
मायावती की जमीन और कमजोर कर दी गई. देश में 20 करोड़ दलित हैं जो कुल आबादी का लगभग 17 फीसदी बैठते हैं. मौजूदा समय में देश की इतनी बड़ी आबादी मजबूत नेतृत्व के संकट का सामना कर रही है. लोकसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं पानेवाली मायावती, 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 19 सीटों पर सिमट गईं. रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे नेता परिवार और सत्ता-लोफ के चलते “राजनीति के दलित विमर्श” से बाहर हो गए. इस स्थिति में दलित हितों और दलित उत्थान के लिये राजनीतिक प्रतिबद्धता का संदेश देना बीजेपी के लिये रामबाण साबित हो सकता था. 2014 के आम चुनावों और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने बीजेपी को दलित शक्ति का अहसास करवाया. बीजेपी की तरफ से कोविंद के नाम को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
बीजेपी की दलित राजनीति के पीछे एक मजबूत रणनीति साफ दिखती है. इस साल 14 अप्रैल यानी बाबा साहेब अंबेदकर की 126 वीं जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नागपुर गए और बाबा साहेब की दीक्षा भूमि पर जाकर उन्हें याद किया. दीक्षा भूमि वह जगह है जहां 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था. इसी रोज उन्होंने डिजिटल पेमेंट का ऐप “भीम” भी लांच किया. इस ऐप के नाम को काफी सोच समझकर रखा गया और उसकी लांचिग की तारीख भी. पिछले साल अंबेदकर जयंती पर मोदी ने बाबा साहेब के जन्मस्थान महू में रैली की और उसे पर्यटन केंद्र बनाने की घोषणा की. दूसरी तरफ संघ की साप्ताहिक पत्रिका – पांचजन्य और उसके अंग्रेजी संस्करण ऑर्गनाइजर ने बाबा साहेब पर विशेष अंक निकाले. वैसे प्रधानमंत्री बनने के बाद स्वच्छ भारत के अपने महत्वाकांक्षी अभियान के तहत मोदी ने खुद जहां जाकर साफ सफाई की वो दिल्ली की वाल्मीकि बस्ती थी. दलितों की बस्ती. मोदी अपनी रैलियों और भाषणों में गांधी औऱ पंडित दीनदयाल उपाध्याय के साथ अंबेदकर को भी राष्ट्र के नायक के रुप में रखते रहे हैं. इसके पीछे भारत के सामाजिक समीकरण का राजनीतिक विमर्श ( संघवाला ) काम कर रहा है. उत्तर प्रदेश के चुनावों से पहले अमित शाह का दलितों के घर समरसता भोज के नाम पर खाना खाना या पिछले साल सिंहस्थ कुंभ में शिप्रा नदी में दलित साधुओं के साथ स्नान करना या हाल ही में तेलंगाना और पश्चिम बंगाल के दौरे पर भी दलितों के यहां भोजन करना- बीजेपी की दलित राजनीति की ही उपज हैं.
हिंदू और हिंदूत्व के जरिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एजेंडा लेकर चलनेवाले संघ और बीजेपी ने अंबेदकर के नायकत्व को उभार देना इसलिए शुरु किया क्योंकि देश वे में “राजनीति की दलित चेतना” का प्रस्थान विंदु हैं. बाबा साहेब के जरिए दलित समुदाय को भावनात्मक रुप से जोड़ना और उस वर्ग के समर्थन को मजबूत करना ज्यादा आसान है. दलितों के खिलाफ भेदभाव और अधिकार की सामाजिक चेतना वैसे तो ज्योतिबा फुले ने जगाई, लेकिन राजनीति में उनकी जगह और सत्ता में हिस्सेदारी का अलख बाबा साहेब ने जगाया. गांधी के साथ उनका पुणा पैक्ट दलितों के लिए समानता और सत्ता के अधिकारों के संरक्षण को लेकर उनकी प्रतिबद्दता का नतीजा था. बाद में कांशीराम ने दलित अधिकारों की राजनीति को नई ऊंचाई दी. वे मानते रहे कि समूचा दलित समाज उनका परिवार है और इस कारण उन्होंने अपने परिवार से सार्वजनिक रुप से संबंध खत्म कर लिया. अपने जीवन में पिता या परिवार के किसी दूसरे के निधन की खबर पाकर भी वे घर नहीं गए. लेकिन मायावती ने उनकी राजनीतिक विरासत को अपने स्वार्थों को पूरा करने का हथियार बना लिया. अपने भाई आनंद को उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद मायावती ने वैचारिक और व्यावहारिक दोनों तरीके से कांशीराम की राजनीति की हत्या कर दी.
बीजेपी ने रामनाथ कोविंद को अगले राष्ट्रपति के तौर पर आगे बढाकर नेतृत्व औऱ नायकत्व के अभाव में दिशाहीन हो चुके दलित समाज को अपने साथ और मजबूती से खड़ा करने की कोशिश की है. संघ की चिंता, दलित समाज इस लिहाज से रहा है कि उसके अंदर बार-बार यह बात गहरे बिठाने की कोशिश होती रही है कि वह हिंदू समाज का बहिष्कृत हिस्सा है. उसके साथ मनुवादी मानसिकता ने मवेशियों जैसा बर्ताव किया. राजनीतिक फैसलों, सांस्कृतिक प्रतीकों और साहित्यिक अवदान की व्याख्या भी इस लिहाज से होती रही है. दुर्गा-महिषासुर विवाद या फिर गैर दलितों के साहित्य को सहानुभूति का साहित्य करार देने की कोशिश ऐसी ही व्याख्याओं का प्रतिफल हैं. संघ की रणनीति, हिंदू समाज के दायरे में दलित समाज को रखकर, गैर हिंदू समाज के ऊपर हिंदूत्व के दर्शन को स्थापित करने की रही है. संघ से जुड़े रहे रामनाथ कोविंद को देश के राष्ट्रपति के पद पर बिठाकर आरएसएस अपने हिंदू राष्ट्र औऱ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे को और ताकत दे सकेगा. दूसरी तरफ एक बड़ा जनाधार बीजेपी की राजनीति से जुड़ा रहेगा, यह उम्मीद भी मजबूत होगी. रामनाथ कोविंद इस लिहाज से काफी सोची समझी राजनीतिक रणनीति का नतीजा हैं.