गाजियाबाद, रविवार को गाजियाबाद के हिसाली गांव स्थित पावन चिंतन धारा आश्रम में स्वराज सभा का आयोजन किया गया. स्वराज सभा में संवाद का विषय था आश्रम व्यवस्था और इसका भारतीय समाज और राजनीति पर असर. इस संवाद में डेनमार्क के Johannesgymnasiet कालेज से आए शोधार्थियों भाग लिया.
डेनमार्क से आये हुए विद्यार्थियों में इस विषय के प्रति उत्सुकता देखते ही बन रही थी. श्रीगुरु पवन जी ने व्याख्यान प्रारंभ करते समय उनकी उत्कंठा पर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की।
श्रीगुरु पवन जी ने कहा कि हम लोग राम और कृष्ण की बात तो रोजाना करते हैं परन्तु गुरु वशिष्ट तथा ऋषि संदीपनी किस प्रकार राम व कृष्ण को शिक्षा देते थे इसके बारे में जानने का प्रयत्न नहीं होता परन्तु यदि उस समय की शिक्षा व्यवस्था का विधिवत अध्ययन करके आज की शिक्षा व्यवस्था से जोड़ा जाये तो भारत चमत्कारित रूप से उन्नति करेगा।
उन्होंने विदेश से आये हुए बुद्धिजीवियों को समझाया कि भारत एकदम से विश्वगुरु नहीं बना बल्कि इसके पीछे चिंतन, अध्ययन, अभ्यास और शिक्षण का लम्बा इतिहास है। भारत में आश्रम का उल्लेख ऋग्वेद काल के प्रारंभ से ही मिलता है। बल्कि यूं कहें कि समस्त वेद, स्मृतियां, संगीतायें तथा पुराण आश्रम में ही लिखे गये। भारत में विज्ञान की नींव आश्रमों ने रखी तथा शरीर विज्ञान, मनौविज्ञान, अग्नि, पहिया, अंक, खगोलविज्ञान, ज्योतिष, भवन निर्माण, कृषि, पशुपालन, भाषा आदि विज्ञान का उदय भी आश्रमों में ही हुआ। ऋषियों ने सभी वर्गों को समुचित शिक्षा दी। यह कहना निरर्थक है कि आश्रम में जन्मगत जाति के आधार पर शिक्षा दी जाती थी बल्कि योग्यता के आधार पर शिक्षा दी जाती थी। आश्रम में ऋषि ही प्रमुख आचार्य होते थे और वही नानाप्रकार के शोध करके अपना समस्त ज्ञान समाज को बांटते थे। उनका जीवन एक तपस्वी तरह होता था तथा आश्रम में रहने वाले सभी लोगों को उनकी सामाजिक हैसियत छोड़कर आचार्य के कठोर अनुशासन में रहना होता था। आश्रम व्यवस्था में सर्वाधिक कार्य चित्त तथा विचारों पर किया जाता था उनके उपरांत विद्यार्थियों की इन्द्रियों को साधने का विशेष अभ्यास कराया जाता था जो विद्यार्थी इस अभ्याय को पूर्ण कर पाते थे वही विषय की शिक्षा प्राप्त करते थे। आश्रमों में छः प्रकार की शिक्षा दी जाती थी-मनोशिक्षा, शारीरिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा, अध्यात्मिक शिक्षा तथा सैन्य शिक्षा। आश्रम की शिक्षण पद्धति तथा विषयों का अध्ययन बड़ी वैज्ञानिक दृष्टि से किया जाता था।
श्रीगुरु पवन जी ने बहुत जोर देकर इस बात को कहा कि भारत के संदर्भ में धर्म तथा विज्ञान कभी अलग थे ही नहीं। अतः इसे समाप्त होना चाहिये। दरअसल भारत तथा विश्व में कुछ कथित बुद्धिजीवि कुछ दो-तीन कथाओं को पढ़कर भारत के समाज का निष्कर्ष निकाल लेते हैं और इसे अवैज्ञानिक ठहराने की कोशिश करते हैं। मैं ऐसे सभी कथित बुद्धिजीवियों का आवाहन करता हूं कि वह वर्ष के लिये भारत के प्राचीन इतिहास का अध्ययन करें उसके बाद उन्हें अपने विश्लेषणों पर स्वयं शर्म आने लगेगी।
आश्रम व्यवस्था में अधिकतर विद्यार्थियों को प्रारंभिक चरण में आश्रम में रहना होता था तथा सूर्योदय से लेकर रात्रिकाल तक की दिनचर्या नियत होती थी। आचार्य विद्यार्थियों के साथ शैक्षणिक यात्राओं पर जाते थे तथा वहां विद्यार्थियों को व्यवहारिक ज्ञान देते थे। ऋषि विश्वामित्र का श्रीराम-लक्ष्मण के साथ घूमना, श्रीकृष्ण और घौर ऋषि के संवाद, ऋषि जमदग्नि का विद्यार्थियों के साथ वन क्षेत्रों में जाना इसी बात के उदाहरण हैं।
विद्यार्थियों में मानसिक विकार न आएं, इस हेतु उन्हें भिक्षाटन के लिए भेजा जाता था तथा वह आश्रम की समस्त व्यवस्थाओं को निर्वहन स्वयं करते थे जिससे उनके नैतिकता के साथ-साथ नेतृत्व क्षमता का भी उदय होता था। गुरु का ओहदा माता-पिता से भी बड़ा था। गुरुमाता (ऋषि पत्नी) बच्चों के भोजन आदि की देखभाल करती थीं। इतने कठिन जीवन में माता-पिता कभी-भी शिकायत करने नहीं आते थे। भारतीय इतिहास में हजारों ऐसे उदाहरणर हैं जिन्हें पढ़कर लगता है कि राजा भी ऋषियों को विशेष सम्मान देते थे तथा आश्रम की देखभाल का समस्त आवश्यकताओं का निर्वहन करते थे। जो विद्यार्थी ब्राह्मण तथा क्षत्रिय कर्म को चुनते थे उनको 18 वर्ष की आयु के उपरांत समाज में कुछ वर्ष बिताने होते थे और सेवा तथा समाज को समझने का कार्य करना होता था। इसे परिव्रजन कहते थे। वहां से लौटने के उपरांत एक विद्यार्थी जो युवा हो जाता था उसमें बल, बुद्धि, शौर्य, विवेक तथा धैर्य उत्पन्न हुआ है या नहीं इसकी गुरु द्वारा परीक्षा ली जाती थी।
तदुपरांत कुछ लोगों को गुरु उपाधियां देकर भेज देते थे परंतु जो इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहते थे उन्हें पुनः अध्ययन करना पड़ता था। यही कारण रहा कि आश्रम से शिक्षित विद्यार्थी समय के हर वर्ग तथा नानाप्रकार की विद्याओं में पारंगत हो जाते थे और अपना तथा समाज का जीवन श्रेष्ठ बनाते चलते थे। भारत की आश्रम व्यवस्था पूर्णतया वैज्ञानिक तथा विकासोन्मुख थी।
इस व्यवस्था का परिचय छान्दोग्योपनिषद, तैतरीयोपनिषद, स्मृतियां, पराशर संहिता तथा ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं। महाभारत तथा रामायण इस पद्धति की सूक्ष्म जानकारियां प्रदान करते हैं तथा वेदांत का शिक्षादर्शन, भारत की शिक्षण पद्धति की गंभीरता तथा वैज्ञानिकता को स्पष्ट करता है।
व्याख्यान सत्र के बाद डेनमार्क से आए विद्यार्थी तथा शिक्षकों ने बड़े सारगर्भित प्रश्न पूछे तथा ध्यान सीखने और अभ्यास करने की इच्छा भी प्रकट की जिसके चलते श्रीगुरु पवन जी ने एक घंटे तक ध्यान की गहराइयों का परिचय तथा अभ्यास कराया। कार्यक्रम के अंत में उपस्थित सभी गणमान्यों व आश्रम सदस्यों ने संध्या पूजा में मां की आरती और हनुमान चालीसा का पाठ किया।
इस कार्यक्रम में श्री हरविलास गुप्ता जी, श्री संदीप त्यागी, श्री बी.के.हनुमान, श्री सच्चिदानंद मिश्र, श्री अजीत जी, श्री अशोक त्यागी और श्रीमती गीतिका जी के साथ भारतीय ज्ञान शोध संस्थान के विद्यार्थी उपस्थित थे।