संस्कृत भाषा को हमारे देश की सबसे प्राचीन भाषा का दर्जा प्राप्त है। संस्कृत भाषा की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत देश में जितने भी ग्रन्थ ,वेद उपनिषद तथा श्लोकों की रचना की गयी है ये सभी संस्कृत भाषा में ही की गयी है। मूल रूप से हमारी मातृभाषा हिंदी के अधिकांश शब्द भी संस्कृत भाषा से लिए गए हैं। वर्तमान के समाज में युवा पीढ़ी का अंग्रेजी भाषा की तरफ रुझान अधिक बढ़ गया है। क्योंकि अंग्रेजी भाषा लोगों की सबसे बड़ी ज़रूरतमंद भाषा में से एक बन गयी है। पर आपको जानकर हैरानी होगी कि अंग्रेजी भाषा के भी कुछ शब्द संस्कृत भाषा के शब्दों का ही रूपांतरण हैं। जैसे संस्कृत भाषा का शब्द मातृ अंग्रेजी में मदर बना , भ्रातृ बना ब्रदर, त्रिकोणमिति बनी ट्रिग्नोमेट्री आदि। ये हमारे लिए गर्व और अचरज की बात है पर ये सच है कि दुनिया की 97% भाषाओं में संस्कृत भाषा के कई शब्दों का प्रयोग किया गया है।
संस्कृत भाषा की उत्पत्ति आज से 4000 वर्ष पहले इंडो -आर्यन द्वारा हुई थी। प्राचीन काल में संस्कृत भाषा वैदिक संस्कृत के नाम से प्रचलित थी। तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरिमानस’ में लिखित चौपाईयां तथा श्लोक हमारे चारो वेद –ऋग्वेद ,अर्थवेद ,सामवेद तथा यजुर्वेद और तो और वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ में भी संस्कृत भाषा को ही वरीयता दी गयी है। संस्कृत भाषा को सभी भाषाओं की जननी माना गया है।पर ये हमारे देश के लिए बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे देश की सबसे प्राचीन और धार्मिक भाषा ‘संस्कृत’ का वर्तमान में महत्व काफी कम हो गया है। आज की युवा पीढ़ी की अंग्रेजी के अलावा अन्य विदेशी भाषाओं ,जैसे, फ्रेंच, स्पैनिश ,तथा जर्मन भाषा सीखने में भी रूचि अधिक है। पर जब बात हमारे देश की प्राचीन भाषा संस्कृत की आती है तो इस भाषा में युवा पीढ़ी को ज़रा सी भी रूचि नहीं है। अपितु आज का युवा वर्ग इस भाषा को सीखना निरर्थक बतलाता है । जिसकी वजह से हम विदेशी भाषाओं को तो महत्व दे रहें हैं परन्तु अपने देश की ही संस्कृत भाषा के सम्मान को कम कर रहें हैं।
देश में संस्कृत भाषा के अस्तित्व की क्षीणता को देखकर इस बार देश की सबसे बड़ी यूनिवर्स्टी में से एक ”दिल्ली यूनिवर्स्टी” ने अपने कॉलेज में संस्कृत विषय में दाखिले के लिए कट ऑफ लिस्ट गिराकर 15 % रखी थी परन्तु ये बहुत ही शर्मनाक और हैरान करने वाला वाक्या है कि जिस यूनिवर्स्टी में एडमिशन लेने का सपना इस देश में लाखों-करोड़ों छात्र रखते हैं उसी यूनिवर्स्टी में (डीयू ) की कम कट ऑफ लिस्ट होने के बावजूद भी एक भी छात्र ने संस्कृत विषय सीखने के लिए अपना नाम दाखिल नहीं कराया।
देश में एक कहावत बहुत प्रचलित है , कि ”घर की मुर्गी दाल बराबर” ये कहावत हमारे देश में भाषा की वर्तमान स्थिति पर बिलकुल सटीक बैठती है। एक तरफ हमारे देश में संस्कृत भाषा के लिए एक भी छात्र ने अपना नाम नामांकित नहीं कराया वहीं दूसरी तरफ विदेशों में संस्कृत भाषा के ज्ञान की तरफ लोगों का रुझान अधिक बढ़ रहा है। इस बात की पुष्टि एक सर्वे से सामने आयी जिसमें बताया गया था कि ” जर्मनी में लगभग 14 यूनिवर्स्टी ऐसी ही जिन्होंने संस्कृत भाषा को मुख्य विषय के तौर पर शामिल किया है।वहां पर छात्रों की भी संस्कृत सीखने में अधिक रूचि सामने आयी है। लंदन के जेम्स जूनियर स्कूल ने तो संस्कृत विषय को अनिवार्य कर दिया है। इसके अलावा फ्रांस, स्वीडेन, रूस यहाँ तक कि अमेरिका में भी बच्चों को नर्सरी से ही ” संस्कृत” भाषा पढ़ाई जाती है।
देश में जहां एक तरफ संस्कृत भाषा का अस्तित्व खत्म हो रहा है वही दूसरी तरफ देश में कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जो आज भी संस्कृत भाषा के उदभव और विकास के लिए प्रयासरत हैं। कर्नाटक राज्य के ‘मैथूर’ गाँव में बचपन से ही संस्कृत भाषा के ज्ञान पर जोर दिया जाता रहा है जिसके परिणामस्वरूप उस गाँव के 95% लोगों को संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान है।
उत्तराखंड के स्कूलों में भी कक्षा 8 तक के बच्चों को संस्कृत सीखना अनिवार्य है और वहां पर समय -समय पर संस्कृत भाषा में वाद विवाद प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। सबसे बड़ी बात ये है कि देश का एकलौता और पहला संस्कृत भाषा का अखबार ‘सुधर्मा’ मैसूर में छपता है। संस्कृत भाषीय अखबार सुधर्मा की शुरुआत 1970 में हुई थी जो वर्तमान में देश के अधिकांश राज्योँ में पढ़ा जाता है।समय समय पर देश में संस्कृत भाषा के प्रति देशवासियों को जागरूक करने के लिए तो कई संस्थाएं प्रयास करती हैं परन्तु पिछले दिन उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर शहर में एक अनोखा ही वाक्या सामने आया। शहर के किदवई नगर क्षेत्र में सब्जी मार्केट में अलग ही नज़ारा देखने को मिला यहाँ पर संस्कृत भाषा को आम जन मानस तक पहुंचाने के लिए ”संस्कृत भारती” नामक संस्था की तरफ से एक कोशिश की गयी जहां सब्जी वालों ने संस्कृत भाषा में सब्जी बेचना शुरू कर दिया। संस्कृत भारती के प्रान्त मंत्री चन्द्रप्रकाश त्रिपाठी के नेतृत्व में जब सब्जी वालों ने आलूकं स्वकारोतु दशरूपाणि बोला तो लोग अचरज में पड़ गए। जिसका अर्थ था एक किलो आलू दस रुपये की है।
देश में संस्कृत भाषा की दयनीय स्थिति देखकर इस बात का तो अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि ये छोटे-छोटे प्रयास इसे सुधारने में कितने कारगर होंगे। पर पूरे देश को एक ज़रा सी बात समझनी पड़ेगी कि बाकी भाषाओं की तरह ही हमे अपनी प्राचीन भाषा का सम्मान करना और सीखना अतिआवश्यक है।