मुंबई : पद्मविभूषण से नवाजी गयीं मल्लिका-ए-गजल बेगम अख्तर का आज 108वां जन्मदिन है। बेगम अख्तर की दीवानगी का इल्म इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी बेगम अख्तर की गजलें लोगों को उनके होने का एहसास कराती हैं। बेगम अख्तर की शख्सियत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जिनके जन्मदिन के मौके पर आज गूगल भी डूडल के माध्यम से उन्हें अपने भाव समर्पित कर रहा है।
बेगम अख्तर की रचनायें उनके अल्फाज लोगों को अपने दर्द से जुड़े हुए लगते थे। बेगम अख्तर की गजलें चोट खाये आशिकों के दिल पर मरहम का काम करती थी। बताया जाता है कि उनकी गजलों को सुनकर हर इंसान ज़िन्दगी के फलसफे को बखूबी समझ जाता था। सच ही है तभी तो आज भी हनी सिंह के रैप में लड़के चाहे कितना थिरक लें मगर सुकून पाने के लिए उन्हें यू ट्यूब पर बेगम अख्तर गजल ही सर्च करना पड़ता है।लफ्जों के धागे में पिरोकर बेगम अख्तर जिस तरह से ज़िन्दगी को अपनी गजलों से जोड़ती थी वो वाकिये काबलिये तारीफ़ होता है।
7 अक्टूबर 1914 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में जन्मी बेगम अख्तर एक ऐसी लड़की जिसने अपनी गजलों से फलख को ज़मीन पर भी सज़ा दिया था।बचपन में इनके माँ-बाप ने प्यार से नाम रखा था बिब्बी मगर जवानी की देहलीज में कदम रखते हुए आगे चलकर इन्होने ज़माने के सामने खुद को अख्तरी बाई फैजाबाद के नाम से रूबरू कराया।
उनकी गजलों में एक ऐसी कशिश थी ,एक ऐसी दीवानगी थी मानों जो सुने तीनों जहां को ही भूल जाए। सात साल की उम्र में ही इन्हे संगीत से इश्क हो गया और उसे हासिल करने के लिए इन्होने कोशिश भी शुरू कर दी। उस जमाने के मशहूर संगीतकार उस्ताद अता मुहम्मद खान, अब्दुल वाहिद खान और पटियाला घराने के उस्ताद झंडे खान से इन्होने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त की।
साल 1930 में महज 15 साल की उम्र में ही बेगम अख्तर ने अपना पहला कलाम पढ़ा था जिसके बोल ”तूने बूटे ए हरजाई तूने बूटे हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई, ताकता तेरी सूरत हरेक तमाशाई.’ लोगों के दिल में उतर गए थे। ठीक उसी समय सामने बैठी सरोजनी नायडू ने बेगम अख्तर को एक साड़ी तोहफे में दी। मंच से उतरते समय बिब्बी ने पहली बार खुद को अख्तरी बाई फैजाबाद के नाम से रूबरू कराया।
इसके बाद तो मानों इन्होने अल्फाजों में लपेट कर जो दर्द की परिभाषा अपनी गजलों के माध्यम से पेश की सुनकर हर संगीतप्रेमी वाहवाही करे बिना नहीं थकता था और ये सिलसिला आज उनकी मौत के इतने सालों बाद भी मुकम्मल है। ये न थी हमारी किस्मत, जो विसाल-ए-यार होता’, ‘ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ अख्तरी बाई की सबसे मशहूर गजलों में से है।
अख्तरी फैजाबादी बनते ही वो बड़ी ही बेबाकी से ठुमरी, टप्पा, दादरा और ख्याल भी बखूबी गाने लगीं। हिंदुस्तान ने उन्हें ‘मल्लिका-ए-गजल’ कहा और सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से भी नवाजा। हिंदुस्तान में शास्त्रीय रागों पर आधारित गजल गायकी को ऊंचाइयों पर पहुंचाने का सेहरा अख्तरी बाई के सिर ही बंधना चाहिए। ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे..’, ‘कोयलिया मत कर पुकार करेजा लगे कटार..’, ‘छा रही घटा जिया मोरा लहराया है’ जैसे गीत उनके प्रसिद्ध गीतों में शुमार हैं।
बेगम अख्तर की आवाज ने बड़े-बड़े लोगों को अपना मुरीद बना दिया था। सरोजनी नायडू ने बेगम अख्तर को सुनकर साडी भेंट की तो कैफ़ी आजमी और पंडित जसराज भी बेगम अख्तर की गजलों के कायल बन गए थे।कला क्षेत्र में योगदान के लिए भारत सरकार ने बेगम अख्तर को 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1968 में पद्मश्री और 1975 में पद्मभूषण से सम्मानित किया था।
ज़िन्दगी चलाने के लिए एक हमसफ़र का होना भी ज़रूरी था इसलिए बेगम अख्तर को दोबारा इश्क हुआ मगर इस बार लखनऊ के एक वकील इश्तियाक अहमद अब्बासी से। इश्क परवान चढ़ा तो निकाह के फरमान पर ही जाकर थमा। शादी के बाद ही समाज की बंदिशों ने अख्तरी बाई के संगीत को कैद कर लिया था। संगीत के बिना बेगम अख्तर की तबियत नासाज रहने लगी क्योँकि उनके लिए संगीत के बिना रहना ठीक उसी तरह था जिस तरह से मछली का पानी के बिना रहना था। कई सालों तक खुद पर काबू रखने के बाद आख़िरकार साल 1949 में बेगम अख्तर ने दोबारा संगीत की दुनिया में कदम रखा और उन्होंने लखनऊ रेडियो स्टेशन में तीन गजल और एक दादरा गाया जिसके बाद उनके आंसू ही छलक उठे।
इसके बाद उन्होंने अपनी आखरी साँस तक संगीत साथ नहीं छोड़ा। मगर ज़िन्दगी बेगम अख्तर के साथ ज़्यादा देर तक वफ़ा नहीं कर पायी और 30 अक्टूबर 1974 को गजल की बेगम हमेशा के लिए इस दुनिया से रुख्सत हो गयी। मगर आज इतने सालों बाद भले ही वो जिस्मानी रूप से हमारे साथ ना हो मगर उनकी गजलें आज भी उनकी रूह की मौजूदगी साफ़ दर्शाती है।