यूक्रेन पर हमले की तैयारी कर रहे रूस को लेकर भारत के नरम रुख पर अमेरिका ने हैरानी जताई है। अमेरिकी मैगजीन इंटरनेशनल अफेयर्स ने अपने एक आर्टिकल में भारत के इस स्टैंड को लेकर चिंता जाहिर की है। अमेरिकी मैगजीन ने कहा है यूरोप समेत दुनिया के तमाम हिस्सों से यूक्रेन पर रूस की कार्रवाई की निंदा के स्वर उठे हैं, लेकिन भारत ने इस पर चुप्पी ही रखी है। अमेरिकी पत्रिका में कहा गया कि यदि भारत इस मसले पर रूस की निंदा करता है तो इसका बड़ा असर देखने को मिलेगा और यह साबित होगा कि वह अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को लेकर भविष्य में भी गंभीर रहने वाला है। इसके अलावा वह चीन के स्टैंड से भी अलग नजर आएगा।
मैगजीन में भारत की रणनीति पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि ऐसा लगता है कि वह तिराहे पर खड़ा है। यदि वह अमेरिका का समर्थन करता है तो फिर पुराने दोस्त रूस से नाराजगी का खतरा होगा, जिसके चीन लगातार करीब जा रहा है। इसके अलावा यदि वह रूस के साथ जाता है तो सबसे अहम और रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण साथी अमेरिका को खो देगा। वहीं तटस्थता बरतने की स्थिति में दोनों ही देशों की नाराजगी का संकट रहेगा। हालांकि अमेरिकी पत्रिका की यह टिप्पणी भारत के स्टैंड से बेचैनी को दर्शाती है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मीटिंग में भारत ने रूस के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की और लगातार यही कहा कि कूटनीतिक तरीके से मसले का हल होना चाहिए। अमेरिका को उम्मीद थी कि भारत इस मसले पर रूस का साथ नहीं देगा और उसके पाले में आ जाएगा। लेकिन चीन और भारत जैसे बड़े देशों के दूरी बनाने से उसके खेमे में बेचैनी दिख रही है। इस बीच अमेरिकी टिप्पणियों के जवाब में ‘द हिंदू’ के विदेश मामलों के संपादक जॉन स्टैनली की टिप्पणी भी अहम है, जो इसे लोकतंत्र या दमनकारी नीतियों जैसी बहस से अलग राजनीति के तौर पर देखते हैं।
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अमेरिकी टिप्पणियों का जवाब देते हुए जॉन स्टैनली ने कहा, ‘जो लोग रूस के खिलाफ ज्यादा आक्रामक न होने को लेकर भारत पर हमला बोल रहे हैं, वे यह तथ्य भूल जाते हैं कि भारत के रूस के साथ गहरे संबंध हैं। बीते कुछ सालों में ये संबंध और मजबूत हुए हैं। इसके अलावा वह अपने हित के मुताबिक फैसले ले रहा है।’ स्टैनली ने वैश्विक राजनीति में डबल स्टैंडर्ड को भी उजागर किया। उन्होंने कहा, ‘रूस ने जब क्रीमिया पर हमला किया था और डोनबास को मान्यता दी थी तो तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। लेकिन जब इजरायल ने गोलान पहाड़ियों पर कब्जा कर लिया तो उसे मान्यता दे दी गई। पूर्वी यरूशलम को भी मान्यता दे दी गई। तुर्की की ओर से सीरिया के एक हिस्से पर कब्जा करने की भी चर्चा नहीं होती। इसलिए वास्तविक राजनीति पर ही चर्चा होनी चाहिए।’