नवरात्र वर्ष में चार बार आता है। इनमें चैत्र और आश्विन मास के नवरात्र का विशेष महत्त्व है। चैत्र नवरात्र या वासंती नवरात्र से ही विक्रम संवत का आरंभ होता है। आश्वस्ति है कि इन दिनों प्रकृति से एक विशेष तरह की शक्ति निकलती है। इस शक्ति को ग्रहण करने के लिए इन दिनों में शक्ति पूजा या नवदुर्गा की पूजा का विधान है। ध्यातव्य है कि जगत की सम्पूर्ण शक्तियों के दो रूप माने गये है – संचित और क्रियात्मक। नवरात्र साधना क्रियात्मक साधना है। इस शाक्त–साधना में नवरात्र का सर्वाधिक महत्त्व है। प्रसुप्त शक्तियों को जागरण, उज्जागरण हेतु नवरात्र के 9 दिनों तक पराम्बा दुर्गा के 9 रूपों की पूजा का विधान है।
पहले दिन माता के स्वरूप की उपासना से आरंभ कर क्रमशः नौ दिनों तक व्रत- उपवास आदि से यह शाक्त साधना की जाती है। इस कड़ी में दूसरा दिन माता के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की उपासना का दिन है। ब्रह्मचारिणी का शाब्दिक अर्थ है-‘ब्रह्मा का-सा आचरण करने वाली’। ‘ब्रह्म’ (ब्रम्ह नहीं) शब्द की व्युत्पत्ति पर विस्तार से बात कर चुका हूँ एवं पाठकों को स्मरण होगा कि इसे ‘Big Bang theory’ से जोड़ा भी था। अस्तु, ‘ब्रह्मा’ का एक अर्थ तपस्या भी है, इसलिए ब्रह्मचारिणी को ‘तपश्चरिणी’ भी कहा जाता है। प्रतीक के रूप में इनके बाएँ हाथ में कमण्डलु और दाहिने हाथ में जप की माला दी गई है, जो साधना की अवस्था को दर्शाती है। इसमें साधक का ध्यान ‘मूलाधार’ से उठकर ‘स्वाधिष्ठान’ चक्र (लिंग-स्थान) पर आया है, जिसका मूल तत्त्व जल है।
वैसे, ब्रह्मचारिणी के बारे में मान्यता है कि महादेव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए यह घोर तपस्या करती हैं : “ब्रह्म चारयितुं शीलं यस्या: सा ब्रह्मचारिणी।” अर्थात् सच्चिदानंदमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना जिसका स्वभाव हो वे ब्रह्मचारिणी हैं।
यहाँ महत्त्वपूर्ण है कि महादेव की आराधना से शक्ति या यह स्वरूप उनके सदृश ही स्तुत्य हो जाती हैं। यह स्पष्ट इंगित करता है कि हमारी संस्कृति में शिव का जितना महत्त्व है, उतना ही शक्ति का। समस्त चराचर सृष्टि इस आदि-शक्ति से ही संचालित है और इनके सान्निध्य से इतर कुछ भी अकल्पनीय है… अचिन्त्य प्राक्कल्पना है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तदृशं भारतं सदैव पूजनीयम्!” – के आर्ष उद्घोष के रूप में यह सनातन संस्कृति का एक ऐसा वैशिष्ट्य है जो आदि काल से सभ्यताओं के आवर्तन, विवर्तन में शाक्त साधना और नवरात्र साधना के रूप में अक्षुण्ण रहा, गुंजायमान रहा।
वस्तुतः इस प्रकृति का पुरुष से या शिव का शक्ति से साहचर्य ही एकमेव तत्त्व है जिसे नवरात्र के नौ रूपों की साधना से अनुभूत किया जा सकता है। इस साधना से आभ्यन्तरिक अपूर्णता को पूर्णता मिलती है। इससे मनो-दौर्बल्य दूर होते हैं, अक्षमताएँ मिटती हैं, औदात्य आता है और साधक पूर्णता और समरसता की ओर गमन करता है।