देहरादून, 6 सितम्बर 2021
उत्तराखंड में लोकपर्व आज भी आस्था, विश्वास, रहस्य और रोमांच का प्रतीक हैं. ये पर्व जहां पहाड़ की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं, वहीं लोगों को एकता के सूत्र में भी बांधते हैं. ऐसी ही एक पर्व है सोरघाटी पिथौरागढ़ का ऐतिहासिक हिलजात्रा, जो यहां 500 साल से मनाया जा रहा है.
पहाड़ों में हिलजात्रा को कृषि पर्व के रूप में मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है. सातू-आंठू से शुरू होने वाले कृषि पर्व का समापन में पिथौरागढ़ में हिलजात्रा के रूप में होता है. इस अनोखे पर्व में बैल, हिरन, लखिया भूत जैसे दर्जनों पात्र मुखौटों के साथ मैदान में उतरकर देखने वालों को रोमांचित कर देते हैं. हिलजात्रा सोर, अस्कोट और सीरा परगना में ही मनाया जाता है.
कुमौड़ की हिलजात्रा का है खास महत्व
हिलजात्रा कई स्थानों पर मनाई जाती है, लेकिन सबसे अधिक ख्याती बटोरी है, कुमौड़ की हिलजात्रा ने. कहा जाता है कि चार महर भाइयों की वीरता से खुश होकर नेपाल नरेश ने मुखौटों के साथ हिलजात्रा पर्व उपहार में दिया था. हिलजात्रा आयोजन समिति के अध्यक्ष यशवंत महर बताते हैं कि वक्त के हिलजात्रा पर्व में काफी बदलाव आया, लेकिन लोगों की आस्था इस पर्व को लेकर बढ़ती ही रही है.
हिलजात्रा पर्व का आगाज भले ही महरों की बहादुरी से हुआ हो, लेकिन अब इसे कृषि पर्व के रूप में मनाया जाने लगा है. हिलजात्रा में बैल, हिरन, चीतल और धान रोपती महिलाएं यहां के कृषि जीवन के साथ ही पशु प्रेम को भी दर्शाती हैं. समय के साथ आज इस पर्व की लोकप्रियता इस कदर बढ़ गई है कि हजारों की तादाo में लोग देखने आते हैं. लखिया भूत के गण का रोल करने वाले पवन महर बताते हैं कि पर्व के दौरान होने वाले कार्यक्रमों में वे घंटों लगातार अपना रोल अदा करते हैं. लेकिन उन्हें कोई थकान नही लगती, साथ ही वे कहते हैं कि लखिया बाबा का आशीर्वाद उन पर है, तभी वे ये भूमिका निभा पाते हैं.
लखिया भूत है आकर्षण का केन्द्र बिंदू
घंटों तक चलने वाले हिलजात्रा पर्व का समापन उस लखिया भूत के आगमन के साथ होता है, जिसे भगवान शिव का गण माना जाता है. लखिया भूत अपनी डरावनी आकृति के बावजूद हिलजात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण है. जो लोगों को सुख,समृद्दि और खुशहाली का आशीर्वाद देने के साथ अगले साल लौटने का वादा कर चला जाता है