चंद्र की कलाओं ने भगवान श्रीकृष्ण को सोलह कलाओं का स्वामी बनाया। कृष्ण जन्म के समय सारे ग्रह अपनी उच्च कक्षा में अवस्थित थे। वृषभ लग्न में भगवान का जन्म हुआ। उस समय वृषभ राशि का चंद्रमा संचारित था। वृषभ चंद्र की उच्च राशि मानी जाती है। जन्म के समय रोहिणी नक्षत्र था। वृषभ का चंद्रमा तथा रोहिणी नक्षत्र के योग ने भगवान श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का संपूर्ण अवतार बनाया।
भगवान कृष्ण की कुंडली के 12 भावों पर दृष्टि डालें तो देखेंगे कि श्रीकृष्ण से बड़ा अवतार सृष्टि में नहीं हुआ। भगवान की कुंडली के द्वितीय भाव में मिथुन राशि आती है। जिसका स्वामी बुध है। इसके प्रभाव ने श्रीकृष्ण को वाणी कौशल, नीतिवान, गूढ़ अर्थों का जानकार बनाया। तृतीय स्थान पराक्रम व प्रतिष्ठा का होता है। चूंकि तृतीय चंद्रमा वृषभ राशि में उच्च होकर लग्न में बैठा है। इस दृष्टि से भगवान श्रीकृष्ण चिर पराक्रमी, सर्वोच्च प्रतिष्ठावान, कूटनीति के जानकार, शब्दों को नीतिगत स्वरूप देने वाले तथा भाव-भंगिमा से परिस्थितियों को जानने वाले हुए।
चतुर्थ स्थान माता जिसमें सूर्य की राशि सिंह आती है। यह आरंभिक मातृ सुख में कमी करवाता है तथा दूसरी माता द्वारा पालन-पोषण के योग बनाता है। इस दृष्टि से जन्म के समय भगवान कृष्ण को माता देवकी का सुख प्राप्त नहीं हो सका। माता यशोदा ने उन्हें पाला। पंचम स्थान उत्तम संतति, बुद्धि , शिक्षा का माना गया है। इस दृष्टि से उच्च के बुध ने भगवान श्रीकृष्ण को सर्वश्रेष्ठ बुद्धि, सर्वश्रेष्ठ शिक्षक तथा सर्वश्रेष्ठ संतान (प्रद्युम्न) प्रदान की।
षष्ठम भाव में ग्रहों की स्थिति ने उन्हें शत्रुंजय बनाया। सप्तम भाव के स्वामी मंगल के स्वग्रही होने से भगवान का रुक्मणि से विवाह हुआ व श्रीकृष्ण की 16 हजार 100 रानियां तथा 8 पटरानियां हुईं। अष्ठम स्थान आयु और गूढ़ ज्ञान का कारक है। श्रीकृष्ण की जन्म कुंडली में स्वग्रही केतु ने उन्हें दीर्घायु प्रदान की। नवम भाव भाग्य का माना जाता है। इस दृष्टि से भगवान ने द्वापर में जन्म लेने से पूर्व देवकी तथा वासुदेव को माता-पिता बनने का वरदान तथा यशोदा एवं नंदलाल को अपने लालन-पालन का वरदान दिया।
दशम स्थान शनि की राशि कुंभ से संबंधित है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जिसका संचालन न्याय के अधिपति शनिदेव द्वारा उल्लेखित है। शनि के प्रभाव से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत युद्घ में अपनी न्यायिक कार्यशैली का परिचय दिया। एकादश भाव बृहस्पति से संबंधित है, जिसने भगवान को 64 विद्याओं में पारंगत किया तथा भगवान ने संसार को गीता का ज्ञान प्रदान किया। द्वाद्वश भाव में अर्जुन को विश्व रूप (विराट स्वरूप) का दर्शन करवाया।
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