सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक पर सुनवाई के चौथे दिन मंगलवार को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने कहा कि महिला निकाहनामे में अपनी तरफ से कुछ शर्तें भी रख सकती है। बोर्ड ने ये भी कहा कि महिलाओं को सभी रूपों में तीन तलाक कहने का हक है। बोर्ड ने कहा कि मुस्लिम समुदाय में शादी एक समझौता है। बोर्ड ने इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं के हितों और उनकी गरिमा की रक्षा के लिए निकाहनामे में कुछ खास इंतजाम करने का विकल्प खुला हुआ है।
चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ के सामने पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा कि वैवाहिक रिश्ते में प्रवेश से पहले महिलाओं के सामने 4 विकल्प होते हैं, जिनमें स्पेशल मैरेज ऐक्ट 1954 के तहत पंजीकरण का विकल्प भी शामिल है। एआईएमपीएलबी ने कहा, ‘महिला भी अपने हितों के लिए निकाहनामा में इस्लामी कानून के दायरे में कुछ शर्तें रख सकती है। महिला को भी सभी रूपों में तीन तलाक कहने का हक है और अपनी गरिमा की रक्षा के लिए तलाक की सूरत में मेहर की बहुत ऊंची राशि मांगने जैसी शर्तों को शामिल करने जैसे दूसरे विकल्प भी उसके पास उपलब्ध हैं।’
तीन तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने सवाल उठाया कि जब निकाहनामे में महिला को भी तलाक देने की शक्तियां दी जाती हैं, तो उसे तीन तलाक देने की शक्ति क्यों नहीं दी जाती।
इस सवाल के जवाब में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वरिष्ठ वकील अधिवक्ता और कांग्रेस सांसद कपिल सिब्बल ने कहा कि धार्मिक विद्वानों ने इसकी मनाही की हुई है। मगर हम मानते हैं कि यह तलाक का बेहद अवांछनीय रूप है। हालांकि अहले हदीस में इसकी अनुमति है। लेकिन फिर भी हम समाज को शिक्षित कर रहे हैं और उसे इसके लिए तैयार कर रहे हैं। विमर्श हो रहा है, मगर हम यह नहीं चाहते कि कोई हमें बताए कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। अदालत तो इसमें बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसमें संसद या विधानसभाएं ही कानून बना सकती हैं।
संविधान पीठ ने पहले दिन ही स्पष्ट कर दिया था कि यदि तीन तलाक धर्म और आस्था का आवश्यक बुनियादी तत्व होगा, तो हम उसमें छेड़छाड़ नहीं करेंगे और मामला बंद कर देंगे। मगर यदि ऐसा नहीं पाया गया, तो इसकी वैधता की समीक्षा होगी। सुनवाई के दौरान पर्सनल लॉ बोर्ड के दस्तावेजों से पढ़कर मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने पूछा कि पैगंबर मोहम्मद के साथी अबूबकर ने कहा है कि तीन तलाक को एक ही तलाक माना जाए। आप कह रहे हैं कि अहले हदीस और शरीया पैगंबर के साथियों ने बनाई है तो फिर अबूबकर तीन तलाक को एक ही तलाक क्यों मान रहे हैं।
सिब्बल ने कहा कि यह अलग-अलग विद्वानों की व्याख्या है, मगर तीन तलाक को अहले हदीस में पूरी मान्यता है। संविधान की कसौटी पर कसने के मुद्दे पर सिब्बल ने कहा कि तीन तलाक आस्था का मामला है, जिसका मुस्लिम बीते 1400 वर्ष से पालन करते आ रहे हैं। इसलिए इस मामले में संवैधानिक नैतिकता और समानता का सवाल नहीं उठता है। मुस्लिम संगठन ने तीन तलाक को हिंदू धर्म की उस मान्यता के समान बताया है जिसमें माना जाता है कि भगवान राम अयोध्या में जन्मे थे। उन्होंने कहा कि इस्लाम के उदय होने के समय वर्ष 637 से तीन तलाक अस्तित्व में है। इसे गैर इस्लामी बताने वाले हम कौन होते हैं। कोर्ट इसे तय नहीं कर सकता। तीन तलाक का स्रोत हदीस में है और यह पैगम्बर मोहम्मद के समय के बाद अस्तित्व में आया।
बोर्ड ने बहुविवाह के मसले पर पिछले साल सितंबर में कहा था, ‘कुरान, हदीस और सर्वमान्य मत मुस्लिम पुरुषों को 4 पत्नियां रखने की इजाजत देता है।’ बोर्ड ने कहा था कि इस्लाम बहुविवाह की इजाजत तो देता है, मगर इसे प्रोत्साहित नहीं करता। बोर्ड ने साथ में यह भी कहा था कि बहुविवाह पुरुषों की वासना की पूर्ति के लिए नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक जरूरत है।